
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं
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सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते
शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम्अ’ जलाते जाते
कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वर्ना हम भी
पा-ब-जौलाँ ही सही नाचते गाते जाते
इस की वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम ‘फ़राज़’ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते
Another one that suits the mood…
आज कल अहमद ‘फराज़’ रात को मन की बातें पढ़ कर सुबह बयान कर देते है…
इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ
तू कि यकता था बे-शुमार हुआ
हम भी टूटें तो जा-ब-जा हो जाएँ
हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ
हम अगर मंज़िलें न बन पाए
मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ
देर से सोच में हैं परवाने
राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ
इश्क़ भी खेल है नसीबों का
ख़ाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ
अब के गर तू मिले तो हम तुझ से
ऐसे लिपटें तिरी क़बा हो जाएँ
बंदगी हम ने छोड़ दी है ‘फ़राज़’
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ
अहमद ‘फराज़’